कहानी की शुरुआत अदीना नाम की एक ग़रीब मगर बेहद ख़ूबसूरत लड़की से होती है। वह उत्तर प्रदेश के मैनपुरी ज़िले में स्थित एक पुरानी और वीरान हवेली में अकेली काम कर रही थी। इस हवेली में एक जिन कई सौ सालों से किसी ख़ूबसूरत लड़की की तलाश में था। जिन ने अदीना को दौलत का लालच दिया और उसकी मोहब्बत में सब कुछ भूल बैठा। जो उसने उस मासूम लड़की के साथ किया, उसे देखकर आपकी रूह काँप जाएगी।
यह कहानी है मैनपुरी के एक पुराने मिट्टी के घर में रहने वाली अदीना की। उसकी ज़िंदगी किसी परी जैसी नहीं थी। उसके चेहरे पर मासूमियत और आँखों में चमक तो थी, लेकिन हालात ने उसकी मुस्कुराहट छीन ली थी। उसका हर दिन एक जद्दोजहद था – बीमार माँ की देखभाल, ख़ाली बर्तन, टूटी हुई छत और दिल में पलती उम्मीद की लौ। अदीना की माँ, सबीना बीबी, एक नेक दिल औरत थी, मगर पिछले 4 सालों से बीमारी के कारण बिस्तर पर पड़ी थी। शरीर कमज़ोर, दवा के पैसे नहीं और कोई क़रीबी रिश्तेदार पास भी नहीं आता था। घर के ख़र्च का कोई ज़रिया नहीं था। कई रातें यूँ ही भूखे पेट गुज़र जातीं, मगर अदीना कभी भी अपने रब से शिकवा न करती।
हर सुबह अदीना फ़ज्र की अज़ान पर उठती, अपने पुराने से ज़ाय-नमाज़ पर सजदा करती, फिर क़ुरान-ए-पाक की तिलावत करती। उसकी दुआओं में एक ही इल्तिजा होती, "या अल्लाह, मेरी माँ को शिफ़ा दे और हमें हलाल रोज़ी का ज़रिया अता फ़रमा।" गाँव में बहुत से लोगों ने उसे बुरे रास्तों की सलाह दी। कुछ ने शादी का लालच दिया, तो कुछ ने नौकरानी बनाने की पेशकश। लेकिन अदीना हर बार सिर्फ़ एक जवाब देती, "मेरे रब ने जो लिखा है, वही बेहतर है। मैं अपना सब्र नहीं बेच सकती।"
फिर एक दिन गाँव की एक बूढ़ी औरत ने उसे बताया कि जंगल के किनारे एक वीरान हवेली है, जहाँ सालों से कोई टिकता नहीं। मगर अब मालिक लोग शहर में हैं और वहाँ काम करने वाले की ज़रूरत है। मेहनत का अच्छा पैसा मिलता है। अदीना ने माँ की आँखों में झाँक कर देखा – कमज़ोरी, दर्द और बेबसी। उसने फ़ैसला कर लिया, "अगर हवेली में शैतान भी हो तो अल्लाह के कलमे और तिलावत के साथ जाऊँगी।" माँ से इजाज़त ली, दो रोटी और क़ुरान की छोटी किताब झोली में डाली और निकल पड़ी एक ऐसे रास्ते पर जहाँ उसके सब्र और ईमान की सबसे बड़ी आज़माइश होने वाली थी।
शम्स हवेली का रहस्य
जिस हवेली की तरफ़ अदीना रवाना हुई थी, उसका नाम था शम्स हवेली, जो कभी ज़मींदार नवाब कलीम शाह की रिहाइश हुआ करती थी। लगभग 100 साल पहले यह हवेली मैनपुरी के उस गाँव की सबसे आलीशान इमारत थी। संगमरमर की दीवारें, बड़े-बड़े झूमर, बाग-बगीचे और फ़व्वारे। नवाब साहब बहुत अमीर थे, मगर उनकी एक ही औलाद थी – एक लड़की मलीहा। कहते हैं कि मलीहा बेमिसाल हुस्न वाली मगर बहुत घमंडी थी। एक दिन उसकी शादी एक शरीफ़ मगर ग़रीब लड़के से तय हुई जिसे वह पसंद नहीं करती थी। उसी रात मलीहा ने ख़ुद को हवेली के सबसे ऊपरी कमरे में बंद कर लिया और सुबह उसकी लाश झूमर से लटकी हुई मिली। मगर अजीब बात यह थी कि उसके चेहरे पर गुस्से की शिकन थी, जैसे वो मरने के बाद भी किसी से नफ़रत कर रही हो।
उसके बाद उस हवेली में अजीब घटनाएँ होने लगीं। नौकर-चाकर ग़ायब होने लगे, कुछ पागल हो गए, कुछ बड़बड़ाते हुए जंगलों में भटकते पाए गए। गाँव के बुज़ुर्ग बताते हैं कि हवेली की दीवारों में किसी ने काले इल्म का सहारा लेकर जिन्नात को क़ैद किया था जो अब आज़ाद घूमते हैं। कई लोगों ने दावा किया कि रात के वक़्त हवेली से किसी लड़की की रोने की आवाज़ें आती हैं। कुछ ने झरोखों से किसी सफ़ेद लिबास वाली औरत को देखे जाने की बात कही। गाँव में बच्चे हवेली के पास जाने से डरते थे और बड़े लोग दूर से ही सलाम करके गुज़रते थे। कहते हैं जो भी वहाँ काम करने गया, ज़्यादा दिन नहीं टिक सका। कुछ ने डर के मारे छोड़ दिया और कुछ हमेशा के लिए ग़ायब हो गए। लेकिन अदीना ने जब यह सब सुना तो सिर्फ़ एक बात कही, "अगर यह हवेली जिन्नों की है तो मेरा रब भी रब्बुन्नास, मलिकन्नास, इलाहिन्नास है।" और इसी यक़ीन के साथ वो उस हवेली के फाटक से अंदर दाख़िल हुई, जहाँ दीवारों की दरारों में वक़्त छुपा हुआ था और हवाओं में मलीहा के शिकवे अब भी गूँजते थे।
कामिल, जिन्न और अदीना का सब्र
शम्स हवेली की दीवारों में बसा वह अदृश्य साया कोई आम जिन नहीं था। उसका नाम था कामिल, और वह न तो पूरी तरह से जिन था न ही पूरी तरह इंसान। वह उन रूहानी जिनों में से था जो पहले इबादतगुज़ार और फ़रिश्तों की तरह पाक हुआ करते थे। उसका रिश्ता अल्लाह से गहरा था और वह जन्नत में दाख़िल होने वाले जिन्नात की फ़ेहरिस्त में था। मगर सैकड़ों साल पहले एक इम्तिहान ने उसे तोड़ दिया। कामिल को एक इंसानी लड़की से रूहानी मोहब्बत हो गई थी। उस मोहब्बत में वह इतना डूबा कि जब वह लड़की किसी और से निकाह कर ली तो कामिल ने अपने रब से शिकायत कर दी, "तूने मेरे दिल में इश्क़ डाला, फिर उसे मुझसे दूर क्यों किया?" यह शिकवा उसे रूहानी जिन की रूह से निकालकर दुनियावी मोहब्बत में डूबे इब्लीस की सरहदों तक ले गया। वह तड़पते हुए उस हवेली में आया जहाँ मलीहा की नफ़रत और मौत की बद्दुआ से हवेली की दीवारें पहले ही शैतानी ताक़तों से भर चुकी थीं। वहाँ कामिल सालों तक अकेला भटकता रहा, एक ऐसी रूह जो मोहब्बत के नाम पर टूटी हुई थी।
जब अदीना पहली बार हवेली में दाख़िल हुई तो उसकी आवाज़, उसकी तिलावत, उसका सब्र – यह सब कामिल के उस टूटे हुए वजूद में सुकून की तरह उतरने लगे। वह हर रोज़ छुपकर उसे देखता जब वह माँ के लिए तस्बीह पढ़ती, जब वह झाड़ू लगाते वक़्त क़ुरान की आयतें बुदबुदाती, जब वह रात में आँसुओं के साथ दुआ माँगती। कामिल के लिए यह कोई आम लड़की नहीं थी। यह मोहब्बत जिस्मानी नहीं थी, बल्कि उसके रूह के उस ख़ाली हिस्से को भर रही थी जो सदियों से तन्हा था। मगर एक जिन का इंसान से इश्क़ और वह भी अल्लाह की बंदी से। क्या यह मोहब्बत पाक थी या फिर से एक गुनाह की शुरुआत? कामिल ख़ुद इस उलझन में फँसा हुआ था। मगर इस बार वह मोहब्बत को पाने के लिए हर हद पार करने को तैयार था, मगर अदीना के लिए नहीं बल्कि ख़ुद को मुकम्मल महसूस करने के लिए। और यहीं से शुरू हुआ एक ऐसा सफ़र जहाँ मोहब्बत और मखलूक़ात का फ़र्क मिटने लगा।
आजमाइश और ईश्वरीय मदद
शम्स हवेली में अदीना को आए कुछ ही दिन हुए थे। कामिल की दीवानगी हर रोज़ बढ़ रही थी। वह हर लम्हा उसे देखता, उसके आसपास रहता मगर दिखाई कभी न देता। उसके इश्क़ का तरीक़ा अजीब था – अदीना को डराना नहीं बल्कि मोहब्बत और राहत के ज़रिए झुकाना। एक रात जब अदीना माँ की दवाई ख़रीदने के लिए रो रही थी, तभी अलमारी का दरवाज़ा अपने आप खुला और एक थैली ज़मीन पर गिरी। उसमें सोने के सिक्के थे। अदीना सहम गई। वह समझ गई कि यह इंसानी करम नहीं। डरते हुए क़ुरान की तिलावत शुरू कर दी, मगर सिक्के वहीं पड़े रहे। उसी रात उसे सपने में एक आवाज़ आई, "यह तेरे लिए है अदीना। बस तेरा हाँ चाहिए। तुझे और तेरी माँ को ज़िंदगी भर कोई तकलीफ़ नहीं होगी।" अदीना की आँखें खुली और उसने उसी वक़्त सजदा किया, "या रब्बी, मुझे तेरा दिया हुआ सब्र और फ़क़्र ही काफ़ी है। मुझे किसी नज़री हिफ़ाज़त की ज़रूरत नहीं। मुझे तेरा सहारा चाहिए, न कि किसी जिन का एहसान।"
अगले दिन हवेली की दीवारें महकने लगीं, बिस्तर पर रेशमी चादरें, टेबल पर गुलाब और माँ की दवाइयाँ ख़ुद-ब-ख़ुद आ गईं। अदीना ने सब कुछ हटाया, क़ुरान की सूरह बक़रा की तिलावत की और सख़्ती से कहा, "अगर यह सब किसी छुपे मखलूक़न की तरफ़ से है तो सुन ले। मैं अल्लाह की बंदी हूँ, किसी और की नहीं।" यह पहली बार था जब कामिल को किसी इंसान ने इतने सब्र, यक़ीन और ख़ुद्दारी से इंकार किया। वह तिलमिला गया, मगर अदीना की दुआओं की ताक़त से पीछे हट गया। उस रात अदीना ने माँ के पैरों पर हाथ रखकर दुआ माँगी, "या अल्लाह, तू ग़रीबों का मददगार है। तू मेरा और मेरी माँ का भी रब है। अगर तू चाहे तो बिना किसी जिन या इंसान के मेरी मुश्किलें दूर कर सकता है।"
अगली सुबह मैनपुरी गाँव के एक भले इंसान, हाफ़िज़ उमर साहब, अचानक हवेली आए और बोले, "बेटी, दिल में अजीब खिंचाव महसूस हुआ। लगा कि किसी पाक रूह को मदद की ज़रूरत है।" अदीना की आँखों में आँसू आ गए। कामिल देख रहा था और अब उसकी मोहब्बत को एक नई चुनौती मिल चुकी थी – अदीना का अल्लाह पर अटूट यक़ीन।
हाफ़िज़ साहब की रहनुमाई
हाफ़िज़ उमर जब हवेली पहुँचे तो अदीना ने उन्हें पूरी बात बताई – सोने की थैली, सपनों में आवाज़ें, रेशमी चादरें और माँ की दवाइयाँ। हाफ़िज़ साहब गहरी साँस लेते हुए बोले, "बेटी अदीना, तू जिस इम्तिहान से गुज़र रही है, वह सिर्फ़ तेरी नहीं। हर उस मोमिन की कहानी है जो तवक्कुल का असली मतलब नहीं समझता। याद रखो जो अल्लाह पर भरोसा करता है, अल्लाह उसके लिए काफ़ी है।" फिर उन्होंने समझाया कि तवक्कुल का मतलब सिर्फ़ दुआ करना नहीं, बल्कि यह यक़ीन रखना है कि मदद सिर्फ़ वहीं से आएगी जहाँ से कोई देख भी नहीं सकता – सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ से। अदीना ने आँसुओं के साथ सिर हिलाया। हाफ़िज़ साहब ने उसे शैतानी वसवसे बचने का तरीक़ा भी बताया, "जब भी तुम्हें कोई अनजानी आवाज़ या लालच महसूस हो, 'आउज़ुबिल्laahi मिनश शैतानिर रजीम' पढ़ो और सूरह फ़लक और सूरह नास की तिलावत करो। इन दो सूरहों को 'मुअज़्ज़तैन' कहा गया है। यह हर बुराई से पनाह देती है।" उन्होंने एक छोटी सी तस्बीह अदीना को दी और कहा, "जब भी तुम्हें डर लगे, 33 बार 'या हफ़ीज़ु' और 33 बार 'या मुतकब्बिरु' पढ़ा करो। अल्लाह की हिफ़ाज़त तेरे चारों तरफ़ ढाल बन जाएगी।"
अदीना ने पूछा, "मगर हाफ़िज़ साहब, क्या जिन वाक़ई होते हैं? क्या वो हम इंसानों को नुक़सान पहुँचा सकते हैं?" हाफ़िज़ साहब मुस्कुराए और बोले, "हाँ, जिन का वजूद क़ुरान से साबित है। सूरह अल-जिन पूरी की पूरी जिन्नों के बारे में है। नबी-ए-पाक ने भी जिन्नों को दावत दी थी और उन्हें क़ुरान सुनाया था। मगर जो जिन शैतान की राह पर होते हैं, वह इंसानों को वसवसे और धोखे से गुमराह करते हैं।" फिर उन्होंने हदीस सुनाई, "शैतान इंसान की रगों में ख़ून की तरह दौड़ता है, मगर ज़िक्रुल्लाह उस शैतान को निकाल देता है।"
उस दिन के बाद अदीना ने हवेली के हर कमरे में सूरह बक़रा की तिलावत शुरू कर दी। कामिल हर रोज़ यह सब सुनता। उसका दिल जलता मगर अजीब तरह से सुकून भी महसूस करता। उसे पहली बार एहसास हुआ कि अदीना की मोहब्बत पाने के लिए उसे अदीना के रब से टकराना नहीं बल्कि उसके रब को समझना पड़ेगा।
मां की दुआ और जिन्न की हार
मैनपुरी गाँव की मस्जिद के पास एक पुरानी नीम के पेड़ की छाँव में बैठा एक बुज़ुर्ग अक्सर तस्बीह घुमाता रहता था। उसका नाम था हाफ़िज़ उमर। उम्र 65 साल मगर आँखों में रौशनी और दिल में वह जज़्बा था जो जवानों को भी मात दे दे। गाँव में कोई बीमार हो, किसी को फ़ातिहा पढ़वानी हो, किसी के बच्चे की तालीम की बात हो, लोग सबसे पहले हाफ़िज़ साहब को याद करते। उनका हर लफ़्ज़ क़ुरान और हदीस से बँधा होता था। उनकी आवाज़ में ऐसी रूहानियत थी कि अदीना जैसी बच्चियाँ उनके सामने बैठकर तिलावत सीखतीं और बूढ़े लोग उनकी दुआओं से राहत पाते।
एक रात जब वह तहज्जुद के वक़्त नमाज़ में मशगूल थे, उनके दिल में एक बेचैनी सी हुई जैसे किसी पाक रूह को मदद चाहिए। उन्होंने उसी वक़्त साज़ो-सामान समेटा, क़ुरान-ए-पाक और रूहानी किताबें उठाईं और हवेली की तरफ़ रवाना हुए। अदीना उन्हें देखकर चौंकी। जब उसने अपनी हालत बयान की तो हाफ़िज़ साहब ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा, "बेटी, तू मोहब्बत और शैतान के वसवसों के बीच फँसी है। मगर याद रख, अल्लाह की रज़ा से बढ़कर कुछ नहीं।" उन्होंने हवेली के हर कमरे में सूरह बक़रा, आयतुल कुर्सी और सूरह जिन्न की तिलावत शुरू कर दी। हाफ़िज़ साहब ने एक पाक पानी से भरी शीशी दी जिस पर उन्होंने 41 बार सूरह फ़ातिहा और सूरह इख़्लास पढ़ी थी। उन्होंने कहा, "इस पानी को हर कमरे में छिड़क देना और रात में सूरह नास, सूरह फ़लक और आयतुल कुर्सी ज़रूर पढ़ना। यह जिन की आग को ठंडा करती है।" कामिल जो दीवारों के पीछे से सब देख रहा था, पहली बार ख़ुद को कमज़ोर और डगमगाता हुआ महसूस करने लगा। उसके लिए यह सिर्फ़ एक हाफ़िज़ नहीं बल्कि एक रूहानी योद्धा था जो सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, कलामुल्लाह की रौशनी से लड़ रहा था।
हाफ़िज़ उमर अब अदीना की निगरानी में थे। वह उसे सिर्फ़ जिन से नहीं बल्कि हर उस रास्ते से बचाना चाहते थे जो उसे अल्लाह से दूर कर सकता था। उन्होंने कहा, "अदीना, तुझे सिर्फ़ जिन से नहीं, अपने ही नफ़्स से भी लड़ना है। मोहब्बत की आग तभी रौशनी बनती है जब उसमें अल्लाह की रज़ा शामिल हो।" और अब हवेली में एक तरफ़ कामिल का इश्क़ बढ़ता जा रहा था और दूसरी तरफ़ हाफ़िज़ उमर की दुआओं और क़ुरान की रौशनी से हवेली बदलने लगी थी। हवेली के अंदर जिन और इंसान के बीच एक ख़ामोश जंग चल रही थी।
मगर उस हवेली से दूर, गाँव की कच्ची झोपड़ी में एक औरत, एक माँ अपने रब के सामने झुकी हुई थी। सबीना बीबी, अदीना की माँ, अब भी बिस्तर पर थीं, मगर उनकी रूह हर रोज़ तड़प रही थी। बेटी की इज़्ज़त, उसके ईमान और उसकी तन्हा ज़िंदगी की चिंता उनके दिल को जला रही थी। अदीना के जाने के बाद उन्होंने खाना कम कर दिया था, मगर सजदे ज़्यादा। हर रात वह अल्लाह से रो-रो कर कहती, "या रब्बी, तू जानता है मेरी बेटी कैसी है। वह तेरी राह पर है। तेरी किताब से मोहब्बत करती है और मैंने उसे तुझ ही पर छोड़ा है। तू उसे किसी गुमराही, किसी जिन, किसी इंसानी या शैतानी ताक़त से बचा लेना।" एक रात जब हवेली में अदीना क़ुरान पढ़ रही थी और कामिल दीवार की ओट से उसे देख रहा था, तभी उसे एक अजीब रूहानी कंपन महसूस हुआ। जैसे कोई नामालूम रौशनी हवेली में दाख़िल हो गई हो। कामil पीछे हटा और पहली बार उसे घुटन महसूस हुई। उस घड़ी में गाँव की उसी झोपड़ी में सबीना बीबी सजदे में थीं और कह रही थीं, "या अल्लाह, अगर मेरी बेटी की हिफ़ाज़त के लिए मेरी ज़िंदगी चाहिए तो तू मुझे उठा ले, मगर उसे हर बुराई से बचा ले।" उनकी यह दुआ आसमानों को चीरती हुई अर्श तक पहुँची। कहते हैं, माँ की दुआ अगर सच्चे दिल से निकले तो वह तकदीर भी बदल सकती है। और उस रात कामिल को एहसास हुआ कि अदीना अकेली नहीं है। वह उस माँ की दुआओं की हिफ़ाज़त में है जिसे अल्लाह से सीधा रिश्ता है। अगले दिन अदीना को हवेली की एक खिड़की से सफ़ेद रौशनी सी दिखी और दिल में एक अजीब सुकून – वह समझ गई, उसकी माँ ने ज़रूर दुआ की होगी और रब ने ज़रूर सुनी होगी। उसने क़ुरान की एक आयत दोहराई, "उज़ कुरूनी अज कुरकुम" (तुम मुझे याद करो, मैं तुम्हें याद करूँगा)। अदीना के बार-बार इंकार और अल्लाह के नाम से पनाह माँगने से कामिल की मोहब्बत धीरे-धीरे दर्द में और फिर जुनून में बदलने लगी थी। पहले वह अदीना के आसपास रहकर बस सुकून महसूस करता था। अब उसे उसकी हर बात में अपनी तौहीन महसूस होने लगी, "मैंने उसे सब कुछ देना चाहा – अमीरी, राहत, उसकी माँ की शिफ़ा तक... और उसने मुझे ठुकरा दिया। सिर्फ़ इसलिए कि मैं जिन हूँ।"
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